कथा यात्रा
कुसुम नारायण "नारायणी"
जीवनी
कुसुम नारायण "नारायणी" का जन्म नवम्बर ३, १९३१ को भदोही, उत्तर प्रदेश में हुआ. प्रारंभिक जीवन राजधानी नई दिल्ली में बीता.
कम उम्र में ही उनकी शादी हो गयी और वह कॉलेज पूरा नहीं कर पायीं. उनके पति, केदार नारायण, एक भूवैज्ञानिक थे जो अपने काम पर अक्सर दूर दराज़ के घने और सुनसान जंगलों में महीनों तक शिविरों में रहते थे. नारायणी ने कभी शिविरों की कठिन ज़िन्दगी में उनका साथ दिया और कभी निकटतम शहर मे अपने बच्चों के पालन के लिये आवास लिया. यह समय समय की एकान्त और अल्गाव की ज़िन्दगी एक बड़े परिवार मे पली शहरी लड़की के लिये जीवन परिवर्तन अनुभव के समान था और इसी अनुभव ने शायद उनकी निहित रचनात्मकता के क्रिस्टलीकरण मे योगदान दिया. उन्होने अपनी पहली कहानी १९६५ में माँ के आकस्मक निधन के बाद लिखी. इस घटना ने उन्ही के शब्दों में उनका "सब कुछ बदल डाला".
" मेरी प्रथम कहानी का जन्म मृत्यु के क्रन्दन मे हुआ. १९६५ मे माँ की अचानक मृत्यु से मेरा जैसे सब कुछ ही बदल गया, जैसे शीतल छाँव से कोई तपती मरुभुमि मे झुलस गया हो, इसी को संजोती पहली कहानी लिखी, पर उसे कभी छपने नहीं भेजा, तथापि मेरी प्रथम प्रकाशित रचना "सुख के बिरवे" माँ के साथ बीते हुए क्षणों की ही एक स्मृति थी जो नवनीत मे छपी".
लेखन का नियमित क्रम तो १९६९ से चला जब उनकी तीन कहानीयां क्रम से सरिता मे छपी. इसी तरह कहानी लेखन का सिलिसिला कई बरसों तक चलता रहा और इस दौरान वह अपने परिवार के साथ चंडीगढ़, पुणे, जयपुर और नागपुर में विभिन्न अवधियों के लिए रहीं. उनके लेखन का सबसे उत्पादक दौर १९८१ में आरम्भ हुआ जब अपने पति के सेवानिवृत्ति के बाद वह लखनऊ में बसीं. यहाँ वह एक लेखिका मंच (अभिव्यक्ती साहित्यिक सांस्क्रितिक संस्था) मे प्रतिष्ठित सदस्या के रूप मे जुड़ीं और उस मंच के सदस्यों, खासकर उसकी अध्यक्ष डाक्टर शान्ती देवबाला, से उन्हे बहुत प्रेरणा मिली.
उनकी रफ़्तार पकड़ती लेखनी को १९९२ मे उनकी सबसे बड़ी और सबसे करीबी बेटी शैलजा (जो खुद भी एक पुरस्क्रित लेखिका थी ) के असामयिक निधन ने झकझोर कर रख दिया. कुछ वर्षों के अंतराल के बाद उन्होने कलम फिर उठाई और इसमें उनकी पति के सहारे, और सहकर्मी लेखिकओं और उनके पाठकों के प्रोत्साहन का बहुत बड़ा हाथ था. २००५ में सत्तावन साल के साथ के बाद रचनात्मक प्रयासों में उनके सबसे बड़े समर्थक उनके पति का निधन हो गया और उनके लेखन मे फिर एक ठहराव आया. अगले कुछ वर्ष उन्होने अपने लेखन को संगठित करने में बिताए, और अपनी पसन्दीदा कहानियों को समेट कर संकलन प्रकाशित किये. २००९ में उनको हिन्दी साहित्य मे योगदान के लिये प्रथम "लोपामुद्रा सम्मान" से पुरस्क्रित किया गया. लेकिन पति के निधन का शून्य नहीं भर पाया, और अपने बचपन के शहर नई दिल्ली में १४ जनवरी २०१५ को उनका देहान्त हो गया.
उनकी पहली कुछ कहानियां कुसुम सिन्हा के नाम से लिखी गईं, फिर अपने पति का उपनाम लेकर कुसुम नारायण के नाम से, लेकिन एक प्रकाशक द्वारा एक "गलती" के बाद उनका लेख नाम "नारायणी" बना और फिर वही रह गया. उनका लेखन जटिल सामाजिक परिस्थितियों को परिवार के ढांचे के नजरिए से किये गये अत्यन्त सरल चित्रण के लिये सराहा गया है. उन्होने अपनी प्रतिभा को कभी असाधारण नहीं समझा ना ही खुद को बुद्धजीवी माना. समाज में परिवर्तन को प्रतिबिंबित करते परिवार मे बदलते रिश्तों को अपनी कहानियों द्वारा भारत के आम पाठकों तक पहुंचाना उनकी रुचि ही नहीं, उनका फ़र्ज़ सा बन गया.
"जीवन मे अपने आसपास इतना कुछ घटता रहता है, अच्छा और बुरा, सुन्दर और असुन्दर, करुणा और प्रेम से भरा, या हिंसा और विद्वेश से उफनता कि वह समाज ही हमे आश्वस्त या उद्वेलित करता है. इन्ही अनुभूतियों को शब्द देने की छटपटाहट मन मे सदा ही रही और साथ ही यह भावना भी कि जीवन से जुड़ी इन अनुभूतियों को सहज से सहज रूप मे ही चित्रित किया जाये तो कहानी जीवन की धड़कन बन जाती है.
मेरी कहानियाँ अपने अनुभवों और अहसासों को जीवन्त बनाने की अन्त:प्रेरणा मे किये गये चिन्तन के परिणाम की कहानियाँ हैं. जब विषमताओं में से कोई निष्ठा या विश्वास उभर आये या दया करुणा की कोई कड़ी चमक जाये या सुन्दर शिष्ट सम्भ्रान्त परिवेश के नीचे छिपी कालिमा को उभार लाये या आदर्शों के गहन गम्भीर उदघोषों के नीचे दबे बेबस करुण सिसकी उभार दे वास्तव में वही साहित्य है. मुझे दलित, महिला, वामपन्थी, पूंजीवादी, जैसे खेमे में बटे साहित्य मे रुचि नहीं. साहित्य जब समग्रता से विकसित होता है तभी वह अपने दर्पण में समाज का सही प्रतिबिम्ब दिखा सकता है".